उम्र गुज़री कि तिरी धुन में चला था दरिया
जा-ब-जा घूमता है आज भी पगला दरिया
बनती जाती हैं गुहर कितनी ही भोली यादें
ये मिरा दिल है कि ठहरा हुआ गहरा दरिया
न किसी मौज का नग़्मा है न गिर्दाब का रक़्स
जाने क्या बात है ख़ामोश है सारा दरिया
थल के सीने पे पिघल जाती है जब चाँद की बर्फ़
दूर तक रेत पे बहता है सुनहरा दरिया
हाए वो रंग भरे प्यार के मस्कन पत्तन
हाए वो नाव से रह रह के लिपटता दरिया
'शाम' आकाश पे जब फैलता है दिन का लहू
डूब जाता है किसी सोच में बहता दरिया
ग़ज़ल
उम्र गुज़री कि तिरी धुन में चला था दरिया
महमूद शाम

