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उम्र-ए-रफ़्ता मैं तिरे हाथ भी क्या आया हूँ | शाही शायरी
umr-e-rafta main tere hath bhi kya aaya hun

ग़ज़ल

उम्र-ए-रफ़्ता मैं तिरे हाथ भी क्या आया हूँ

आफ़ताब अहमद

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उम्र-ए-रफ़्ता मैं तिरे हाथ भी क्या आया हूँ
दिन बिताने थे मगर ख़ुद को बिता आया हूँ

धूल भी ऐसे क़रीने से उड़ाई है कि मैं
एक मरते हुए रस्ते को बचा आया हूँ

कल को दे आऊँगा जा कर उसे बीनाई भी
आँख दीवार पे फ़िलहाल बना आया हूँ

वादी-ए-सौत नहीं मुझ को भुलाने वाली
नक़्श यूँ कर के वहाँ अपनी सदा आया हूँ

सिर्फ़ पाँव ही नहीं क़ैद से बाहर आए
अपनी ज़ंजीर को भी कर के रिहा आया हूँ

अपने आँसू भी किए नज़्र किसी पानी के
प्यास दरिया की बहर-तौर बुझा आया हूँ

ज़िंदगी तू भी बहुत याद करेगी मुझ को
तेरे हिस्से के भी दुख-दर्द उठा आया हूँ

अब परेशाँ हूँ कि ता'बीर का जाने क्या हो
बंद कानों को नया ख़्वाब सुना आया हूँ

जाने किस घाट लगे उम्र की कश्ती 'अहमद'
ख़ुद को सूखे हुए दरिया में बहा आया हूँ