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उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है | शाही शायरी
umr-e-pas-manda kuchh dalil si hai

ग़ज़ल

उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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उम्र-ए-पस-माँदा कुछ दलील सी है
ज़िंदगानी भी अब क़लील सी है

गिर्या करता हूँ क्या मैं नज़र-ए-हुसैन
आँसुओं की जो इक सबील सी है

चल दिला वो पतंग उड़ाता है
अभी आने में उस के ढील सी है

लोग करते हैं वस्फ़-ए-नूर-जहाँ
मैं ने देखा वो ज़न तो फ़ील सी है

किस के मिज़्गाँ ने ये किया जादू
मेरे दिल में गड़ी जो कील सी है

तू गर आवे शिकार-ए-माही को
चश्म-ए-तर आँसुओं से झील सी है

उस को सोहबत का गर दिमाग़ नहीं
तब्अ अपनी भी कुछ अलील सी है

दिल मिरा मिस्र-ए-हुस्न है तब तो
नदी आँखों की रूद-ए-नील सी है

है जो ये 'मुसहफ़ी' की हम-ख़्वाबा
है तो अच्छी प कुछ असील सी है