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उलझे उलझे धागे धागे से ख़यालों की तरह | शाही शायरी
uljhe uljhe dhage dhage se KHayalon ki tarah

ग़ज़ल

उलझे उलझे धागे धागे से ख़यालों की तरह

ख़ातिर ग़ज़नवी

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उलझे उलझे धागे धागे से ख़यालों की तरह
हो गया हूँ इन दिनों तेरे सवालों की तरह

अपने दिल की वुसअ'तों में हर तरफ़ भटका फिरा
बे-कराँ मुबहम सराबों में ग़ज़ालों की तरह

ये मिरा एहसास है या जब्र-ए-मौसम का असर
अब की रुत महके नहीं गुल पिछले सालों की तरह

अस्र-ए-हाज़िर की जबीं पर तल्ख़ियाँ कंदा हुईं
तन गए हालात अपने गिर्द जालों की तरह

दश्त-ए-ग़म में आँधियों के दार सहने के लिए
ख़ुश्क पत्ते उठ रहे हैं आज ढालों की तरह

ज़ुल्मत-ए-मग़रिब को 'ख़ातिर' कोई ये पैग़ाम दे
हम भी अब उभरेंगे मशरिक़ से उजालों की तरह