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उलझे तो सब नशेब-ओ-फ़राज़-ए-हयात में | शाही शायरी
uljhe to sab nasheb-o-faraaz-e-hayat mein

ग़ज़ल

उलझे तो सब नशेब-ओ-फ़राज़-ए-हयात में

नौशाद अली

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उलझे तो सब नशेब-ओ-फ़राज़-ए-हयात में
हम थे कि उन की ज़ुल्फ़ों के ख़म देखते रहे

जब घर जला था मेरा वो मंज़र अजीब था
देखा नहीं जो तुम ने वो हम देखते रहे

वो साहिब-ए-क़लम न वो अब साहिबान-ए-सैफ़
क्या हो गए हैं सैफ़ ओ क़लम देखते रहे

हम तिश्ना-काम जाम-ए-तही ले के हाथ में
साक़ी का मय-कदे में भरम देखते रहे

पहुँचे सनम-कदे में तो हैरत न कम हुई
कितने बदल गए हैं सनम देखते रहे

बस देखते ही देखते 'नौशाद' क्या कहें
सूरज ग़ुरूब हो गया हम देखते रहे