उलझनें इतनी थीं मंज़र और पस-मंज़र के बीच
रह गई सारी मसाफ़त मील के पत्थर के बीच
रुख़ से ये पर्दा हटा बेहोश कर मुझ को तबीब
गुफ़्तुगू जितनी भी हो फिर ज़ख़्म और नश्तर के बीच
उस को क्या मालूम अहवाल-ए-दिल-ए-शीशा-गराँ
वर्ना आ जाता कभी तो हाथ और पत्थर के बीच
शौक़-ए-सज्दा बंदगी वारफ़्तगी और बे-ख़ुदी
मो'तबर सब उस की चौखट और मेरे सर के बीच
इक क़यामत हुस्न उस का और वो भी जल्वा-गर
मैं फ़क़त मबहूत जादू और जादूगर के बीच
मैं भी ख़ुद्दारी का मारा था सफ़ाई कुछ न दी
उस ने भी मतलब निकाले लफ़्ज़ और तेवर के बीच
वक़्त और मसरूफ़ियत के मसअले सब इक तरफ़
दूरियाँ इतनी नहीं थीं 'ताज' अपने घर के बीच

ग़ज़ल
उलझनें इतनी थीं मंज़र और पस-मंज़र के बीच
हुसैन ताज रिज़वी