उजड़ के घर से सर-ए-राह आ के बैठे हैं
हम अपनी ज़िद में सभी कुछ गँवा के बैठे हैं
कहाँ तक अपनी ही परछाइयों से भागेंगे
ये लोग जो तिरी महफ़िल में आ के बैठे हैं
अब आह-ओ-ज़ारी-ए-ग़म-ख़्वार का फ़रेब खुला
ये मेहरबाँ भी वहीं दिल लगा के बैठे हैं
अज़ाब-ए-हश्र का क्या ज़िक्र हम से ऐ वाइ'ज़
हम इस बला को यहीं आज़मा के बैठे हैं

ग़ज़ल
उजड़ के घर से सर-ए-राह आ के बैठे हैं
वारिस किरमानी