उड़ते हुए परिंदों के शह-पर समेट लूँ
जी चाहता है शाम के मंज़र समेट लूँ
लब पर उगाऊँ उस के धनक फूल क़हक़हे
आँखों में उस की फैला समुंदर समेट लूँ
पहले मिलन का फूल खिले रूह में तिरी
बाहोँ में तुझ को ले के तिरे डर समेट लूँ
मुमकिन नहीं है फिर भी मैं ये चाहता हूँ क्यूँ
अख़बार पर सुलगते हुए घर समेट लूँ
चादर दूँ अपने अहद की ज़ैनब को और बढ़ूँ
नेज़ों पे जो सजे हैं सभी सर समेट लूँ

ग़ज़ल
उड़ते हुए परिंदों के शह-पर समेट लूँ
मरग़ूब अली