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उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना | शाही शायरी
uDi jo gard to is KHak-dan ko pahchana

ग़ज़ल

उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना

वज़ीर आग़ा

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उड़ी जो गर्द तो इस ख़ाक-दाँ को पहचाना
और उस के बाद दिल-ए-बे-निशाँ को पहचाना

जला जो रिज़्क़ तो हम आसमाँ को जान गए
लगी जो प्यास तो तीर ओ कमाँ को पहचाना

चलो ये आँख का जल-थल तो तुम ने देख लिया
मगर ये क्या कि न अब्र-ए-रवाँ को पहचाना

बहार आई तो हर-सू थीं कतरनें उस की
बहार आई तो हम ने ख़िज़ाँ को पहचाना

ख़ुद अपने ग़म ही से की पहले दोस्ती हम ने
और उस के बाद ग़म-ए-दोस्ताँ को पहचाना

सफ़र तवील सही हासिल-ए-सफ़र ये है
वहाँ को भूल गए और यहाँ को पहचाना

ज़मीं से हाथ छुड़ाया तो फ़ासले जागे
मगर न हम ने कराँ-ता-कराँ को पहचाना

अजब तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी हम ने
जहाँ में रह के न कार-ए-जहाँ को पहचाना