उड़े नहीं हैं उड़ाए हुए परिंदे हैं
हमें न छेड़ सताए हुए परिंदे हैं
क़फ़स में क़ैद करो या हमारे पर काटो
तुम्हारे जाल में आए हुए परिंदे हैं
हवा चलेगी तो बच्चे उड़ाएँगे उन को
ये काग़ज़ों से बनाए हुए परिंदे हैं
जमे हुए हैं ये शाख़ों पे इस तरह जैसे
शजर के साथ उगाए हुए परिंदे हैं
फ़लक पे जिन को सितारे समझ रहे हैं लोग
वो चाँदनी में नहाए हुए परिंदे हैं
बुलंदियाँ हैं हमारे मिज़ाज में शामिल
बुलंदियों से गिराए हुए परिंदे हैं
हमारे पास ही आएँगे लौट कर 'बाक़ी'
हमारे जितने सधाए हुए परिंदे हैं
ग़ज़ल
उड़े नहीं हैं उड़ाए हुए परिंदे हैं
बाक़ी अहमदपुरी