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उभरता चाँद सियह रात के परों में था | शाही शायरी
ubharta chand siyah raat ke paron mein tha

ग़ज़ल

उभरता चाँद सियह रात के परों में था

ज़काउद्दीन शायाँ

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उभरता चाँद सियह रात के परों में था
कोई तो चेहरा मिरे दर्द के घरों में था

वो अक्स-ए-जिस्म जो ख़्वाबों में हो गया तहलील
कभी इन आँखों के सिमटे हुए दरों में था

ख़ुनुक हवाओं के ज़ानूँ पे सोचे हैं वो
तिरी वफ़ाओं का कुछ दर्द जिन सुरों में था

गुज़िश्ता रात की आँधी भी आ के देख गई
अटल सुकूत ग़मों के समुंदरों में था

ये दिन का दाग़ जो रातों को मुँह छुपाता है
कभी यही तो सहर के पयम्बरों में था