तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
अब के किसी बे-नाम से मौसम की तरह आ
हर मर्तबा आता है मह-ए-नौ की तरह तू
इस बार ज़रा मेरी शब-ए-ग़म की तरह आ
हल करने हैं मुझ को कई पेचीदा मसाइल
ऐ जान-ए-वफ़ा गेसू-ए-पुर-ख़म की तरह आ
ज़ख़्मों को गवारा नहीं यक-रंगी-ए-हालात
नश्तर की तरह आ कभी मरहम की तरह आ
नज़दीकी ओ दूरी की कशाकश को मिटा दे
इस जंग में तू सुल्ह के परचम की तरह आ
माना कि मिरा घर तिरी जन्नत तो नहीं है
दुनिया में मिरी लग़्ज़िश-ए-आदम की तरह आ
तू कुछ तो मिरे ज़ब्त-ए-मोहब्बत का सिला दे
हंगामा-ए-फ़ना दीदा-ए-पुर-नम की तरह आ
ग़ज़ल
तू फूल की मानिंद न शबनम की तरह आ
फ़ना निज़ामी कानपुरी