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तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं | शाही शायरी
tumhaari aur meri kaj-adaiyan hi rahin

ग़ज़ल

तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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तुम्हारी और मिरी कज-अदाइयाँ ही रहीं
रहे जो पास तो बाहम लड़ाइयाँ ही रहीं

ज़ि-बस-कि करते रहे बे-कसों पे तुम बेदाद
सदा गली में तुम्हारी दोहाइयाँ ही रहीं

हुई न साज़ मिरी उस की सोहबत इक शब हाए
इधर से इज्ज़ उधर से रुखाइयाँ ही रहीं

दरेग़ यार से बिछड़े तो ऐसे हम बिछड़े
कि ता-बा-रोज़-ए-क़यामत जुदाइयाँ ही रहीं

अब उस के मिलने का क्या लुत्फ़ 'मुसहफ़ी' बाहम
न वो सुलूक न वो आश्नाइयाँ ही रहीं