तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे
तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे
जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो
कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे
वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे
न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाए तो बेवफ़ा न लगे
तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर
कि तेरे बा'द मुझे कोई बेवफ़ा न लगे
तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िंदगी 'क़ैसर'
कि एक घूँट में मुमकिन है बद-मज़ा न लगे
ग़ज़ल
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
क़ैसर-उल जाफ़री