तुम्हारे लम्स को ख़ुद मैं उतार सकता हूँ
मैं अपने आप को यूँ भी सँवार सकता हूँ
वो साँस साँस में घुलने लगा है यूँ मेरे
मैं पोर पोर से उस को पुकार सकता हूँ
मिरे ख़याल की ताक़त से तुम नहीं वाक़िफ़
ज़मीन पर मैं फ़लक भी उतार सकता हूँ
मिरे मिज़ाज की शिद्दत से तुम तो वाक़िफ़ हो
तुम्हें मैं अपना बना कर भी हार सकता हूँ
अगर जो इज़्न-ए-मोहब्बत मुझे मिले 'साइम'
मैं रोम रोम तिरा भी निखार सकता हूँ

ग़ज़ल
तुम्हारे लम्स को ख़ुद मैं उतार सकता हूँ
साइम जी