तुम से वाबस्ता है मेरी मौत मेरी ज़िंदगी
जिस्म से अपने कभी साया जुदा होता नहीं
इस तरह फ़रियाद करने को कलेजा चाहिए
अब कोई गुलशन में मेरा हम-नवा होता नहीं
वो मोहब्बत-आफ़रीं देता है हस्ब-ए-ज़र्फ़-ए-इश्क़
फिर किसी से भी तलब-गार-ए-वफ़ा होता नहीं
इक तख़य्युल है कि जिस में महव है मेरा दिमाग़
इक तसव्वुर ये जो आँखों से जुदा होता नहीं
सई-ए-फ़हम-ए-ज़ात-ए-बारी और ये महदूद अक़्ल
जिस का हासिल कुछ भी हैरत के सिवा होता नहीं
अशरफ़-उल-मख़्लूक़ कहते हैं उसी मजबूर को
जिस का कोई काम बे-दस्त-ए-दुआ होता नहीं
जितने अरमाँ दिल में थे 'मख़मूर' सब मौजूद हैं
एक भी तो अपने मरकज़ से जुदा होता नहीं
ग़ज़ल
तुम से वाबस्ता है मेरी मौत मेरी ज़िंदगी
मख़मूर देहलवी