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तुम से वाबस्ता है मेरी मौत मेरी ज़िंदगी | शाही शायरी
tum se wabasta hai meri maut meri zindagi

ग़ज़ल

तुम से वाबस्ता है मेरी मौत मेरी ज़िंदगी

मख़मूर देहलवी

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तुम से वाबस्ता है मेरी मौत मेरी ज़िंदगी
जिस्म से अपने कभी साया जुदा होता नहीं

इस तरह फ़रियाद करने को कलेजा चाहिए
अब कोई गुलशन में मेरा हम-नवा होता नहीं

वो मोहब्बत-आफ़रीं देता है हस्ब-ए-ज़र्फ़-ए-इश्क़
फिर किसी से भी तलब-गार-ए-वफ़ा होता नहीं

इक तख़य्युल है कि जिस में महव है मेरा दिमाग़
इक तसव्वुर ये जो आँखों से जुदा होता नहीं

सई-ए-फ़हम-ए-ज़ात-ए-बारी और ये महदूद अक़्ल
जिस का हासिल कुछ भी हैरत के सिवा होता नहीं

अशरफ़-उल-मख़्लूक़ कहते हैं उसी मजबूर को
जिस का कोई काम बे-दस्त-ए-दुआ होता नहीं

जितने अरमाँ दिल में थे 'मख़मूर' सब मौजूद हैं
एक भी तो अपने मरकज़ से जुदा होता नहीं