तुम से राह-ओ-रस्म बढ़ा कर दीवाने कहलाएँ क्यूँ
जिन गलियों में पत्थर बरसें उन गलियों में जाएँ क्यूँ
वैसे ही तारीक बहुत हैं लम्हे ग़म की रातों के
फिर मेरे ख़्वाबों में यारो वो गेसू लहराएँ क्यूँ
मजबूरों की इस बस्ती में किस से पूछें कौन बताए
अपना मोहल्ला भूल गई हैं बे-चारी लैलाएँ क्यूँ
मुस्तक़बिल से आस बहुत है मुस्तक़िल कैसा भी हो
माज़ी किस के काम आया है माज़ी को दोहराएँ क्यूँ
हाँ हम ने भी आज किसी का नाज़ुक सा दिल तोड़ा है
शहर-ए-वफ़ा की रस्म यही है हम इस पर शरमाएँ क्यूँ
खिड़की खिड़की सन्नाटा है चिलमन चिलमन तन्हाई
चाहत की महफ़िल में अब हम नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ लाएँ क्यूँ
वादों के जंगल में 'आज़र' हम तो बरसों भटके हैं
आप करें क्यूँ दिल पे भरोसा आप ये धोका खाएँ क्यूँ
ग़ज़ल
तुम से राह-ओ-रस्म बढ़ा कर दीवाने कहलाएँ क्यूँ
कफ़ील आज़र अमरोहवी