EN اردو
तुम ने सच बोलने की जुरअत की | शाही शायरी
tumne sach bolne ki jurat ki

ग़ज़ल

तुम ने सच बोलने की जुरअत की

सलीम कौसर

;

तुम ने सच बोलने की जुरअत की
ये भी तौहीन है अदालत की

मंज़िलें रास्तों की धूल हुईं
पूछते क्या हो तुम मसाफ़त की

अपना ज़ाद-ए-सफ़र भी छोड़ गए
जाने वालों ने कितनी उजलत की

मैं जहाँ क़त्ल हो रहा हूँ वहाँ
मेरे अज्दाद ने हुकूमत की

पहले मुझ से जुदा हुआ और फिर
अक्स ने आईने से हिजरत की

मेरी आँखों पे उस ने हाथ रखा
और इक ख़्वाब की महूरत की

इतना मुश्किल नहीं तुझे पाना
इक घड़ी चाहिए है फ़ुर्सत की

हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया
तुम ने क्या सोच कर मोहब्बत की

कौन किस के लिए तबाह हुआ
क्या ज़रूरत है इस वज़ाहत की

इश्क़ जिस से न हो सका उस ने
शायरी में अजब सियासत की

याद आई तो है शनाख़्त मगर
इंतिहा हो गई है ग़फ़लत की

हम वहाँ पहले रह चुके हैं 'सलीम'
तुम ने जिस दिल में अब सुकूनत की