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तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है | शाही शायरी
tumne rasm-e-jafa uTha di hai

ग़ज़ल

तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है

सबा अकबराबादी

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तुम ने रस्म-ए-जफ़ा उठा दी है
हमें किस जुर्म की सज़ा दी है

शम-ए-उम्मीद क्यूँ जला दी है
इश्क़ तारीकियों का आदी है

आप ने ख़ुद मुझे सदा दी है
या मिरी क़ुव्वत-ए-इरादी है

हम तो मुद्दत के मर गए होते
मौत ने ज़िंदगी बढ़ा दी है

अब दुआ पर भी ए'तिमाद नहीं
ना-मुरादी सी ना-मुरादी है

तुझ सा बेदाद-गर कहाँ होगा
लब-ए-हर-ज़ख़्म ने दुआ दी है

मुख़्तलिफ़ हैं तसव्वुरात-ए-जमाल
ये अक़ीदा भी इन्फ़िरादी है

देख फ़ितरत की बज़्म-आराई
ख़ाक पर चाँदनी बिछा दी है

ये जो छोटी सी है कली सर-ए-शाख़
बाग़ की बाद शाहज़ादी है

लब-ए-तस्वीर-ए-दोस्त कुछ तो बता
किस ने ये ख़ामुशी सिखा दी है

ऐ 'सबा' कीमिया-ए-ग़म के लिए
ज़िंदगी ख़ाक में मिला दी है