तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
शहर तो शहर बदल जाएँगे वीराने तक
देखिए महफ़िल-ए-साक़ी का नतीजा क्या हो
बात शीशे की पहुँचने लगी पैमाने तक
उस जगह बज़्म साक़ी ने बिठाया है हमें
हाथ फैलाएँ तो जाता नहीं पैमाने तक
सुब्ह होती नहीं ऐ इश्क़ ये कैसी शब है
क़ैस ओ फ़रहाद के दोहरा लिए अफ़्साने तक
फिर न तूफ़ान उठेंगे न गिरेगी बिजली
ये हवादिस हैं ग़रीबों ही के मिट जाने तक
मैं ने हर-चंद बला टालनी चाही लेकिन
शैख़ ने साथ न छोड़ा मिरा मय-ख़ाने तक
वो भी क्या दिन थे कि घर से कहीं जाते ही न थे
और गए भी तो फ़क़त शाम को मय-ख़ाने तक
मैं वहाँ कैसे हक़ीक़त को सलामत रक्खूँ
जिस जगह रद्द-ओ-बदल हो गए अफ़्साने तक
बाग़बाँ फ़स्ल-ए-बहार आने पे वा'दा तो क़ुबूल
और अगर हम न रहे फ़स्ल-ए-बहार आने तक
और तो क्या कहूँ ऐ शैख़ तिरी हिम्मत पर
कोई काफ़िर ही गया हो तिरे मय-ख़ाने तक
ऐ 'क़मर' शाम का वा'दा है वो आते होंगे
शाम कहलाती है तारों के निकल आने तक
ऐ क़मर सुब्ह हुई अब तो उठो महफ़िल से
शम्अ' गुल हो गई रुख़्सत हुए परवाने तक
ग़ज़ल
तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
क़मर जलालवी