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तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक | शाही शायरी
tumko hum KHak-nashinon ka KHayal aane tak

ग़ज़ल

तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक

क़मर जलालवी

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तुम को हम ख़ाक-नशीनों का ख़याल आने तक
शहर तो शहर बदल जाएँगे वीराने तक

देखिए महफ़िल-ए-साक़ी का नतीजा क्या हो
बात शीशे की पहुँचने लगी पैमाने तक

उस जगह बज़्म साक़ी ने बिठाया है हमें
हाथ फैलाएँ तो जाता नहीं पैमाने तक

सुब्ह होती नहीं ऐ इश्क़ ये कैसी शब है
क़ैस ओ फ़रहाद के दोहरा लिए अफ़्साने तक

फिर न तूफ़ान उठेंगे न गिरेगी बिजली
ये हवादिस हैं ग़रीबों ही के मिट जाने तक

मैं ने हर-चंद बला टालनी चाही लेकिन
शैख़ ने साथ न छोड़ा मिरा मय-ख़ाने तक

वो भी क्या दिन थे कि घर से कहीं जाते ही न थे
और गए भी तो फ़क़त शाम को मय-ख़ाने तक

मैं वहाँ कैसे हक़ीक़त को सलामत रक्खूँ
जिस जगह रद्द-ओ-बदल हो गए अफ़्साने तक

बाग़बाँ फ़स्ल-ए-बहार आने पे वा'दा तो क़ुबूल
और अगर हम न रहे फ़स्ल-ए-बहार आने तक

और तो क्या कहूँ ऐ शैख़ तिरी हिम्मत पर
कोई काफ़िर ही गया हो तिरे मय-ख़ाने तक

ऐ 'क़मर' शाम का वा'दा है वो आते होंगे
शाम कहलाती है तारों के निकल आने तक

ऐ क़मर सुब्ह हुई अब तो उठो महफ़िल से
शम्अ' गुल हो गई रुख़्सत हुए परवाने तक