तुम को अगर हमारी मोहब्बत नहीं रही
हम को भी अब अदू से अदावत नहीं रही
हर इक अदा पे मरने की आदत नहीं रही
वो दिल नहीं रहा वो तबीअ'त नहीं रही
मज़मून-ए-मुद्दआ' अभी दिल में ही था मिरे
कहते हैं अब तो ताब-ए-समाअ'त नहीं रही
वाँ है वही वुफ़ूर-ए-इताब-ओ-जफ़ा-ओ-क़हर
याँ नाज़ भी उठाने की ताक़त नहीं रही
बे-शक नक़ाब-ए-रुख़ से उठाया किसी ने आज
ज़ुल्मत-कदे में मेरे जो ज़ुल्मत नहीं रही
'मुश्ताक़' तेरे इश्क़ की है धूम आज-कल
अब क़ैस-ओ-कोहकन की वो शोहरत नहीं रही
ग़ज़ल
तुम को अगर हमारी मोहब्बत नहीं रही
मुंशी बिहारी लाल मुश्ताक़ देहलवी