तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या
क़ब्ज़े पे हाथ रख के डराते हो हम को क्या
आँखें तुम्हारी झपकीं हैं ईधर को बेशतर
तुम इन इशारतों से बुलाते हो हम को क्या
आवें हमारी गोर में गर मुनकर-ओ-नकीर
इतना कहें: अभी से उठाते हो हम को क्या
ला कर कभी दिया है कोई फूल फल हमें
तुम सैर-ए-गुलिस्ताँ को जो जाते हो हम को क्या
कहते हो एक-आध की है मेरे हाथों मौत
हम भी समझते हैं ये सुनाते हो हम को क्या
हम से तो अब तलक वही शर्म-ओ-हिजाब है
गर हर किसी के सामने आते हो हम को क्या
कहते हो रोज़ हम से यही कल को आइयो
क्या ख़ू निकाली है ये सताते हो हम को क्या
देना है कोई बोसा तो दे डालिए मियाँ
क्यूँ पाँव तोड़ते हो फिराते हो हम को क्या
ले ले के नाम उस की जफ़ाओं का 'मुसहफ़ी'
हम आप जल रहे हैं जलाते हो हम को क्या
ग़ज़ल
तुम बाँकपन ये अपना दिखाते हो हम को क्या
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी