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टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का | शाही शायरी
TukDa jahan gira jigar-e-chaak-chaak ka

ग़ज़ल

टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
याक़ूत सा दमकने लगा रंग ख़ाक का

ले जाते हैं उठा के मलक उस की नाश को
ये मरतबा है तेग़-ए-निगह के हलाक का

ऐ बाग़बाँ न मुझ से हो आज़ुर्दा मैं चला
इक दम ख़ुश आ गया था मुझे साया ताक का

मिलने में कितने गर्म हैं ये हाए देखियो
कुश्ता हूँ मैं तो शोला-रुख़ों के तपाक का

ऐ शोला अपनी गर्म-रवी पर न भूलियो
आलम है और आह-ए-दिल-ए-सोज़नाक का

आता है अपने कुश्ते की तुर्बत पे जब वो शोख़
इक नारा वाँ से निकलते है रूही-फ़िदाक का

शुक्र-ए-ख़ुदा कि नाम है इस्मत का 'मुसहफ़ी'
रोज़-ए-जज़ा गवाह मिरे इश्क़-ए-पाक का