टुक इक ऐ नसीम सँभाल ले कि बहार मस्त-ए-शराब है
वो जो हुस्न-ए-आलम-ए-नश्शा है उसे अब की ऐन-शबाब है
वो घटाएँ छाईं जो कालियाँ जो हरी-भरी हुईं डालियाँ
उभर आईं फूलों की लालियाँ तो बजाए आब-ए-शहाब है
ये दो-रोज़ा नश्व-ओ-नुमा को तू न समझ कि नक़्श-ए-पुर-आब से
ये सराब है ये हबाब है फ़क़त एक क़िस्सा-ए-ख़्वाब है
अरक़-ए-बहार-ए-शराब है वो ही आज छिड़केंगे आप पर
न तो बेद-ए-मुश्क है इस घड़ी न तो केवड़ा न गुलाब है
उन्हें कहने सुनने से बैर है जो ख़ुद आएँ सो तो ब-ख़ैर है
ये ग़रज़ कि ज़ोर ही सैर है न सवाल है न जवाब है
किधर आऊँ जाऊँ करूँ सो क्या मिरा जी ही नाक में आ गया
न तो अर्ज़-ए-हाल की ताब है न तो सब्र-ए-ख़ाना-ख़राब है
मुझे वहश-ओ-तैर से रश्क है कि कभी उन्हों को किसी नमत
न सवाल है न जवाब है न अज़ाब है न इक़ाब है
मिरी बात मान सुना दिला न तो अर्ज़ ओ फ़र्ज़ पे जी चला
कोई उन को टोके सो क्या भला कि वो आली उन की जनाब है
अरे 'इंशा' अब जो ये दौर है तिरी वज़्अ इन दिनों और है
ये भी कोई ज़ीस्त का तौर है न शराब है न कबाब है
ग़ज़ल
टुक इक ऐ नसीम सँभाल ले कि बहार मस्त-ए-शराब है
इंशा अल्लाह ख़ान