तुझे पा कर भी जब कोई कमी महसूस होती है
तो फिर ये साँस भी रुकती हुई महसूस होती है
जो कहना ही नहीं उस का इशारा क्यूँ दिया जाए
कि ऐसी बात तो कुछ और भी महसूस होती है
अदीम-उल-फ़ुर्सती शिद्दत से उस का याद आ जाना
ग़नीमत है अगर ये तिश्नगी महसूस होती है
पलट कर आ गए हो तुम तो क्यूँ आए नहीं लगते
तुम्हारी आँख में क्यूँ गर्द सी महसूस होती है
वगर्ना बोझ है जिस को लिए फिरना है काँधे पर
करें महसूस तो ये ज़िंदगी महसूस होती है
शजर वो भी जिसे सींचा हो अपना ख़ून दे दे कर
कभी उस की भी छाँव अजनबी महसूस होती है
ये मेरे ख़्वाब हैं जो साया करते हैं मिरे सर पर
मुझे इस दोपहर में छाँव सी महसूस होती है
किसी की गुफ़्तुगू के दरमियाँ अक्सर न जाने क्यूँ
कहीं गहरी सी कोई ख़ामुशी महसूस होती है
ज़मीं तेरी तरह मैं भी सफ़र में हूँ कि जैसे तू
कभी ठहरी नहीं ठहरी हुई महसूस होती है

ग़ज़ल
तुझे पा कर भी जब कोई कमी महसूस होती है
ख़ालिद महमूद ज़की