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तुझे क्या ख़बर मिरे बे-ख़बर मिरा सिलसिला कोई और है | शाही शायरी
tujhe kya KHabar mere be-KHabar mera silsila koi aur hai

ग़ज़ल

तुझे क्या ख़बर मिरे बे-ख़बर मिरा सिलसिला कोई और है

नसीर तुराबी

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तुझे क्या ख़बर मिरे बे-ख़बर मिरा सिलसिला कोई और है
जो मुझी को मुझ से बहम करे वो गुरेज़-पा कोई और है

मिरे मौसमों के भी तौर थे मिरे बर्ग-ओ-बार ही और थे
मगर अब रविश है अलग कोई मगर अब हवा कोई और है

यही शहर शहर-ए-क़रार है तो दिल-ए-शिकस्ता की ख़ैर हो
मिरी आस है किसी और से मुझे पूछता कोई और है

ये वो माजरा-ए-फ़िराक़ है जो मोहब्बतों से न खुल सका
कि मोहब्बतों ही के दरमियाँ सबब-ए-जफ़ा कोई और है

हैं मोहब्बतों की अमानतें यही हिजरतें यही क़ुर्बतें
दिए बाम-ओ-दर किसी और ने तो रहा बसा कोई और है

ये फ़ज़ा के रंग खुले खुले इसी पेश-ओ-पस के हैं सिलसिले
अभी ख़ुश-नवा कोई और था अभी पर-कुशा कोई और है

दिल-ए-ज़ूद-रंज न कर गिला किसी गर्म ओ सर्द रक़ीब का
रुख़-ए-ना-सज़ा तो है रू-ब-रू पस-ए-ना-सज़ा कोई और है

बहुत आए हमदम ओ चारा-गर जो नुमूद-ओ-नाम के हो गए
जो ज़वाल-ए-ग़म का भी ग़म करे वो ख़ुश-आश्ना कोई और है

ये 'नसीर' शाम-ए-सुपुर्दगी की उदास उदास सी रौशनी
ब-कनार-ए-गुल ज़रा देखना ये तुम्ही हो या कोई और है