EN اردو
तुझे ऐ ज़ाहिद-बदनाम समझाना भी आता है | शाही शायरी
tujhe ai zahid-badnam samjhana bhi aata hai

ग़ज़ल

तुझे ऐ ज़ाहिद-बदनाम समझाना भी आता है

रज़ा जौनपुरी

;

तुझे ऐ ज़ाहिद-बदनाम समझाना भी आता है
कहीं बातों में तेरी रिंद-ए-मैख़ाना भी आता है

मतानत-आफ़रीं नज़रें करम-गुस्तर सफ़-ए-मिज़्गाँ
सितम ढाने को उठ्ठे हो सितम ढाना भी आता है

उन्हीं नाज़ुक लबों को फ़ुर्सत-ए-आतिश-बयानी भी
उन्हीं नाज़ुक लबों को फूल बरसाना भी आता है

कहो बादा-कशो क्या हाल है फ़ैज़ान-ए-साक़ी का
कभी महफ़िल में दौर-ए-जाम-ओ-पैमाना भी आता है

नहीं महदूद एहसास-ए-तपिश शम-ए-फ़रोज़ाँ तक
बला का सोज़ ले कर दिल में परवाना भी आता है

फ़ना का दर्स देती हैं रह-ए-उल्फ़त में जो मौजें
उन्हीं के पेच-ओ-ख़म से दिल को बहलाना भी आता है

उन्हीं अश्कों में एहसास-ए-अलम का सैल-ए-बे-पायाँ
सर-ए-मिज़्गाँ उन्हीं अश्कों को थर्राना भी आता है

तुम्हीं ने लब को बख़्शी है मता-ए-ख़ामुशी वर्ना
ज़बाँ से क़िस्सा-हा-ए-शौक़ दोहराना भी आता है