तुझ से बिछड़ के हम भी मुक़द्दर के हो गए
फिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गए
फिर यूँ हुआ कि ग़ैर को दिल से लगा लिया
अंदर वो नफ़रतें थीं कि बाहर के हो गए
क्या लोग थे कि जान से बढ़ कर अज़ीज़ थे
अब दिल से महव नाम भी अक्सर के हो गए
ऐ याद यार तुझ से करें क्या शिकायतें
ऐ दर्द-ए-हिज्र हम भी तो पत्थर के हो गए
समझा रहे थे मुझ को सभी नासेहान-ए-शहर
फिर रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद उसी काफ़र के हो गए
अब के न इंतिज़ार करें चारागर कि हम
अब के गए तो कू-ए-सितमगर के हो गए
रोते हो इक जज़ीरा-ए-जाँ को 'फ़राज़' तुम
देखो तो कितने शहर समुंदर के हो गए
ग़ज़ल
तुझ से बिछड़ के हम भी मुक़द्दर के हो गए
अहमद फ़राज़