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तुझ बुत का हूँ मैं बरहमन कर्तार की सौगंद है | शाही शायरी
tujh but ka hun main barahman kartar ki saugand hai

ग़ज़ल

तुझ बुत का हूँ मैं बरहमन कर्तार की सौगंद है

उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला

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तुझ बुत का हूँ मैं बरहमन कर्तार की सौगंद है
जपता हूँ माला यार की ज़ुन्नार की सौगंद है

बाँका हुस्न सुन कर तिरा ख़ूबाँ ने खाया पेच-ओ-ताब
ऐ नुक-पलक तुझ चेहरा-ए-बल-दार की सौगंद है

ख़ूबाँ की ख़ूबी है ख़िज़ाँ तेरी बहार आँगे सदा
आशिक़ कूँ ऐ गुलफ़ाम तुझ रुख़्सार की सौगंद है

रखता हूँ तुझ सूँ चश्म ये दिल ऐ मह-ए-नूर-ए-नज़र
आ के ख़बर इक रोज़ मुझ बीमार की सौगंद है

दरिया-ए-वहदत में तिरे ऐ गौहर-ए-यकता-ए-हुस्न
पाया नहीं सानी तिरा संसार की सौगंद है

बिन हार आए गुल-रुख़ाँ तेरे गले पड़ने कतीं
जीता तो बारे हुस्न के मिज़मार की सौगंद है

शर्मिंदगी सूँ जा छुपाया क़ुव्वत अपनी कान में
सुन कर दुर-अफ़्सानी तिरी गुफ़्तार की सौगंद है

शमशीर-ए-अबरू बाँध कर आया सिपाही नैन का
दो टोक दिल हैं आशिक़ाँ तलवार की सौगंद है

सेहन-ए-चमन में गुल-बदन तन-ज़ेब कीं तुझ जामा कूँ
नैन सुख है तेरा देखना दीदार की सौगंद है

तुझ हिज्र में दिल की फ़ुग़ाँ सूँ आँख नईं लगती कभी
कमख़्वाब है मख़मल मिरा शब-ए-तार की सौगंद है

उश्शाक़ कूँ रुख़्सत किया दे पाँ ख़िरद का यार ने
रोता है निस दिन 'मुबतला' घर-बार की सौगंद है