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तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं | शाही शायरी
tujh bin to kabhi gul ke tain bu na karun main

ग़ज़ल

तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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तुझ बिन तो कभी गुल के तईं बू न करूँ मैं
मर जाऊँ प गुलशन की तरफ़ रू न करूँ मैं

गर ज'अद को सुम्बुल की सबा बेचने लावे
ख़ातिर से तिरी क़ीमत-ए-यक-मू न करूँ मैं

पल्ले में तिरे हुस्न के गो हो वो गिराँ-तर
यूसुफ़ को तिरा संग-ए-तराज़ू न करूँ मैं

यूँ दिल को गिरफ़्तार रखूँ सैद-ए-अलम में
पर और का सैद-ए-ख़म-ए-गेसू न करूँ मैं

गर हूर-ओ-परी दिल को लुभावे मिरे आ कर
वल्लाह कि उस पर कभी जादू न करूँ मैं

गर मर्सिया-ख़्वानी पे दिल आवे कभी मेरा
तू होवे तो दाऊद को बाज़ू न करूँ मैं

हूँ बस-कि हवा-दार तिरी आतिश-ए-ग़म का
फुंक जाए जो सीना तो कभू हू न करूँ मैं

यूँ देखूँ तो देखूँ किसी ख़ुश-वज़्अ को लेकिन
ख़्वाहिश की नज़र बर-रुख़-ए-नेकू न करूँ मैं

बुलबुल की तरह गुल पे न हूँ ज़मज़मा-परवाज़
कुमरी की तरह सर्व पे कू कू न करूँ मैं

जब रात हो ज़ानू पे रखो अपने सर अपना
पर तकिया-ए-सर ग़ैर का ज़ानू न करूँ मैं

मेहराब के काबे का नमाज़ी हूँ तो वाँ भी
जुज़ सज्दा-ए-ताक़-ए-ख़म-ए-अबरू न करूँ मैं

जब तक न खुलें मुझ से तिरे हुस्न के उक़्दे
हरगिज़ हवस-ए-नाफ़ा-ए-आहू न करूँ मैं

हम-ख़्वाबा अगर होवे मिरी हूर-ए-बहिश्ती
ईधर से उधर को कभी पहलू न करूँ मैं

कोई और तो कब मुझ को लुभा सकता है लेकिन
डरता हूँ तसव्वुर से तिरे ख़ू न करूँ मैं

ऐ 'मुसहफ़ी' है अहद कि जब तक न वो गुल हो
गुल-गश्त-ए-गुल ओ सैर-ए-लब-ए-जू न करूँ मैं