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तुझ बिन घर कितना सूना था | शाही शायरी
tujh bin ghar kitna suna tha

ग़ज़ल

तुझ बिन घर कितना सूना था

नासिर काज़मी

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तुझ बिन घर कितना सूना था
दीवारों से डर लगता था

भूली नहीं वो शाम-ए-जुदाई
मैं उस रोज़ बहुत रोया था

तुझ को जाने की जल्दी थी
और मैं तुझ को रोक रहा था

मेरी आँखें भी रोती थीं
शाम का तारा भी रोता था

गलियाँ शाम से बुझी बुझी थीं
चाँद भी जल्दी डूब गया था

सन्नाटे में जैसे कोई
दूर से आवाज़ें देता था

यादों की सीढ़ी से 'नासिर'
रात इक साया सा उतरा था