तुझ बिन घर कितना सूना था
दीवारों से डर लगता था
भूली नहीं वो शाम-ए-जुदाई
मैं उस रोज़ बहुत रोया था
तुझ को जाने की जल्दी थी
और मैं तुझ को रोक रहा था
मेरी आँखें भी रोती थीं
शाम का तारा भी रोता था
गलियाँ शाम से बुझी बुझी थीं
चाँद भी जल्दी डूब गया था
सन्नाटे में जैसे कोई
दूर से आवाज़ें देता था
यादों की सीढ़ी से 'नासिर'
रात इक साया सा उतरा था
ग़ज़ल
तुझ बिन घर कितना सूना था
नासिर काज़मी