तिश्ना-लबों की नज़्र को सौग़ात चाहिए
तेरे निसार थोड़ी सी बरसात चाहिए
इतना भी मय-कदे पे न पहरे बिठाईए
कुछ तो ख़याल-ए-अहल-ए-ख़राबात चाहिए
आपस की गुफ़्तुगू में भी कटने लगी ज़बाँ
अब दोस्तों से तर्क-ए-मुलाक़ात चाहिए
मुद्दत से चश्म-ओ-दिल में कोई राब्ता नहीं
क्या और तुझ को गर्दिश-ए-हालात चाहिए
किस किस ख़ुदा के सामने सज्दा नहीं किया
कुछ शर्म कुछ तो आबरू-ए-ज़ात चाहिए
ज़िक्र-ए-परी-वशाँ के ज़माने गुज़र गए
अब तो ग़ज़ल में हम्द-ओ-मुनाजात चाहिए
इंसाफ़ की ये आँख ये सूरज की रौशनी
यारब यही है दिन तो मुझे रात चाहिए
हम चाहते हैं दहर में जीने का हक़ मिले
उन को सुबूत-ए-फ़र्रुख़ी-ए-ज़ात चाहिए
कुछ भी हो मस्लहत का तक़ाज़ा मगर नदीम
जो दिल में हो ज़बाँ पे वही बात चाहिए
ऐ ज़ुल्फ़-ए-नाज़ कोई हवा-ए-फ़ुसूँ का दाम
अहल-ए-नज़र को सैर-ए-तिलिस्मात चाहिए
ताब-ए-कमंद-ए-काकुल-ए-ख़म-दार होशियार
खुल कर न हर किसी पे इनायात चाहिए
'ताहिर' जज़ा-ए-हिम्मत-ए-आली है ज़ुल्फ़-ए-यार
ज़ुल्फ़ों से खेलने के लिए हात चाहिए

ग़ज़ल
तिश्ना-लबों की नज़्र को सौग़ात चाहिए
जाफ़र ताहिर