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तिरी क़ुदरत की क़ुदरत कौन पा सकता है क्या क़ुदरत | शाही शायरी
teri qudrat ki qudrat kaun pa sakta hai kya qudrat

ग़ज़ल

तिरी क़ुदरत की क़ुदरत कौन पा सकता है क्या क़ुदरत

नज़ीर अकबराबादी

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तिरी क़ुदरत की क़ुदरत कौन पा सकता है क्या क़ुदरत
तिरे आगे कोई क़ादिर कहा सकता है क्या क़ुदरत

तू वो यकता-ए-मुतलक़ है कि यकताई में अब तेरी
कोई शिर्क-ए-दुई का हर्फ़ ला सकता है क्या क़ुदरत

ज़मीं से आसमाँ तक तू ने जो जो रंग रंगे हैं
ये रंग-आमेज़ियाँ कोई दिखा सकता है क्या क़ुदरत

हज़ारों गुल हज़ारों गुल-बदन तू ने बना डाले
कोई मिट्टी से ऐसे गुल खिला सकता है क्या क़ुदरत

हुए हैं नूर से जिन के ज़मीन ओ आसमाँ पैदा
कोई ये चाँद ये सूरज बना सकता है क्या क़ुदरत

हवा के फ़र्क़ पर कोई बना कर अब्र का ख़ेमा
तनाबें तार-ए-बाराँ की लगा सकता है क्या क़ुदरत

जम ओ अस्कंदर ओ दारा ओ कैकाऊस ओ केख़ुसरौ
कोई इस ढब के दिल बादल बना सकता है क्या क़ुदरत

किया नमरूद ने गो किब्र से दावा ख़ुदाई का
कहीं उस का ये दावा पेश जा सकता है क्या क़ुदरत

निकाला तेरे इक पुश्ते ने कफ़शीं मार-ए-मग़्ज़ उस का
सिवा तेरे ख़ुदा कोई कहा सकता है क्या क़ुदरत

निकाले लकड़ियों से तू ने जिस जिस लुत्फ़ के मेवे
कोई पेड़ों में ये पेड़े लगा सकता है क्या क़ुदरत

तिरे ही ख़्वान-ए-नेमत से है सब की परवरिश वर्ना
कोई च्यूँटी से हाथी तक खिला सकता है क्या क़ुदरत

हमारी ज़िंदगानी को बग़ैर अज़ तेरी क़ुदरत के
कोई पानी को पानी कर बहा सकता है क्या क़ुदरत

तिरे हुस्न-ए-तजल्ली का जहाँ ज़र्रा झमक जावे
तो फिर मूसा कोई वाँ ताब ला सकता है क्या क़ुदरत

दम-ए-ईसा में वो तासीर थी तेरी ही क़ुदरत की
वगर्ना कोई मुर्दे को जिला सकता है क्या क़ुदरत

तू वो महबूब चंचल है कि बार-ए-नाज़ को तेरे
बग़ैर-अज़-मुस्तफ़ा कोई उठा सकता है क्या क़ुदरत

'नज़ीर' अब तब्अ पर जब तक न फ़ैज़ान-ए-इलाही हो
कोई ये लफ़्ज़ ये मज़मूँ बना सकता है क्या क़ुदरत