तिरी नज़र सबब-ए-तिश्नगी न बन जाए
कहीं शराब मिरी ज़िंदगी न बन जाए
कभी कभी तो अंधेरा भी ख़ूब-सूरत है
तिरा ख़याल कहीं रौशनी न बन जाए
भड़क न जाए कहीं शम-ए-इल्म-ओ-दानिश भी
जुनूँ जुनूँ ही रहे आगही न बन जाए
मैं डर रहा हूँ कहाँ तेरा सामना होगा
तिरा वजूद ही मेरी कमी न बन जाए
तिरे बग़ैर ज़माने को मुँह दिखा न सकूँ
ये ज़िंदगी कहीं शर्मिंदगी न बन जाए
जहाँ में है कि कमीं-गाह में ख़ुदा जाने
अब इस क़दर भी सुबुक आदमी न बन जाए
ये वहम दिल को सताता है रू-ब-रू तेरे
ये तेरी दीद कहीं आख़िरी न बन जाए
तरब की बज़्म में कम कम फ़सुर्दगी ऐ 'शाज़'
कहीं मिज़ाज की उफ़्ताद ही न बन जाए
ग़ज़ल
तिरी नज़र सबब-ए-तिश्नगी न बन जाए
शाज़ तमकनत