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तिरी नज़र सबब-ए-तिश्नगी न बन जाए | शाही शायरी
teri nazar sabab-e-tishnagi na ban jae

ग़ज़ल

तिरी नज़र सबब-ए-तिश्नगी न बन जाए

शाज़ तमकनत

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तिरी नज़र सबब-ए-तिश्नगी न बन जाए
कहीं शराब मिरी ज़िंदगी न बन जाए

कभी कभी तो अंधेरा भी ख़ूब-सूरत है
तिरा ख़याल कहीं रौशनी न बन जाए

भड़क न जाए कहीं शम-ए-इल्म-ओ-दानिश भी
जुनूँ जुनूँ ही रहे आगही न बन जाए

मैं डर रहा हूँ कहाँ तेरा सामना होगा
तिरा वजूद ही मेरी कमी न बन जाए

तिरे बग़ैर ज़माने को मुँह दिखा न सकूँ
ये ज़िंदगी कहीं शर्मिंदगी न बन जाए

जहाँ में है कि कमीं-गाह में ख़ुदा जाने
अब इस क़दर भी सुबुक आदमी न बन जाए

ये वहम दिल को सताता है रू-ब-रू तेरे
ये तेरी दीद कहीं आख़िरी न बन जाए

तरब की बज़्म में कम कम फ़सुर्दगी ऐ 'शाज़'
कहीं मिज़ाज की उफ़्ताद ही न बन जाए