तिरे सुलूक-ए-तग़ाफ़ुल से हो के सौदाई
चला हूँ मैं तो कुछ आगे चली है रुस्वाई
नया नया है अभी जज़्बा-ए-ख़ुद-आराई
ख़ुदा करे कि न आए ख़याल-ए-यकताई
तबीअतों में बड़ा इख़्तिलाफ़ होता है
मुझे तो अर्ज़-ए-तमन्ना पे शर्म सी आई
हयात-ए-इश्क़ के ये पेच ओ ख़म नशेब ओ फ़राज़
इन्हीं का नाम है शायद किसी की अंगड़ाई
जो आज ज़िक्र चला आस्तीं के साँपों का
तो मुझ को अपने कई दोस्तों की याद आई
तुम्हारी याद को रह रह के घेर लाती है
मह ओ नुजूम की ताबिश गुलों की रानाई
तलब की मौत समझिए रह-ए-तलब में क़याम
बड़ा ग़लत है तक़ाज़ा-ए-आबला-पाई
तमाम उम्र में पहुँचा हूँ इस नतीजे पर
नशात-ए-बज़्म से बेहतर है दर्द-ए-तन्हाई
वो इब्तिदा-ए-मोहब्बत की गुफ़्तुगू 'महशर'
बजा रहा हो कोई दूर जैसे शहनाई
ग़ज़ल
तिरे सुलूक-ए-तग़ाफ़ुल से हो के सौदाई
महशर इनायती

