तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ
तुझे भी कुछ बदलता जा रहा हूँ
न जाने तुझ को भूला हूँ कि ख़ुद को
बहर-सूरत सँभलता जा रहा हूँ
तबीअत है अभी तिफ़लाना मेरी
खिलौनों से बहलता जा रहा हूँ
हक़ीक़त को मुकम्मल देखना है
नज़र के रुख़ बदलता जा रहा हूँ
चला है मुझ से आगे मेरा साया
सो मैं भी साथ चलता जा रहा हूँ
ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ
सो अंदर से पिघलता जा रहा हूँ
बहुत नाज़ाँ हूँ महरूमी पे अपनी
इसी पर हाथ मिलता जा रहा हूँ
किसी का वादा-ए-फ़र्दा नहीं मैं
तू क्यूँ फ़र्दा पे टलता जा रहा हूँ

ग़ज़ल
तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ
सलीम अहमद