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तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ | शाही शायरी
tere nazdik aa kar sochta hun

ग़ज़ल

तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ

रसा चुग़ताई

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तिरे नज़दीक आ कर सोचता हूँ
मैं ज़िंदा था कि अब ज़िंदा हुआ हूँ

जिन आँखों से मुझे तुम देखते हो
मैं उन आँखों से दुनिया देखता हूँ

ख़ुदा जाने मिरी गठरी में क्या है
न जाने क्यूँ उठाए फिर रहा हूँ

ये कोई और है ऐ अक्स-ए-दरिया
मैं अपने अक्स को पहचानता हूँ

न आदम है न आदम-ज़ाद कोई
किन आवाज़ों से सर टकरा रहा हूँ

मुझे इस भीड़ में लगता है ऐसा
कि मैं ख़ुद से बिछड़ के रह गया हूँ

जिसे समझा नहीं शायद किसी ने
मैं अपने अहद का वो सानेहा हूँ

न जाने क्यूँ ये साँसें चल रही हैं
मैं अपनी ज़िंदगी तो जी चुका हूँ

जहाँ मौज-ए-हवादिस चाहे ले जाए
ख़ुदा हूँ मैं न कोई नाख़ुदा हूँ

जुनूँ कैसा कहाँ का इश्क़ साहब
मैं अपने आप ही में मुब्तिला हूँ

नहीं कुछ दोश उस में आसमाँ का
मैं ख़ुद ही अपनी नज़रों से गिरा हूँ

तरारे भर रहा है वक़्त या रब
कि मैं ही चलते चलते रुक गया हूँ

वो पहरों आईना क्यूँ देखता है
मगर ये बात मैं क्यूँ सोचता हूँ

अगर ये महफ़िल-ए-बिंत-ए-इनब है
तो मैं ऐसा कहाँ का पारसा हूँ

ग़म-ए-अंदेशा-हा-ए-ज़िंदगी क्या
तपिश से आगही की जल रहा हूँ

अभी ये भी कहाँ जाना कि 'मिर्ज़ा'
मैं क्या हूँ कौन हूँ क्या कर रहा हूँ