तिरे मिलने को बेकल हो गए हैं
मगर ये लोग पागल हो गए हैं
बहारें ले के आए थे जहाँ तुम
वो घर सुनसान जंगल हो गए हैं
यहाँ तक बढ़ गए आलाम-ए-हस्ती
कि दिल के हौसले शल हो गए हैं
कहाँ तक ताब लाए ना-तवाँ दिल
कि सदमे अब मुसलसल हो गए हैं
निगाह-ए-यास को नींद आ रही है
मिज़ा पर अश्क बोझल हो गए हैं
उन्हें सदियों न भूलेगा ज़माना
यहाँ जो हादसे कल हो गए हैं
जिन्हें हम देख कर जीते थे 'नासिर'
वो लोग आँखों से ओझल हो गए हैं
ग़ज़ल
तिरे मिलने को बेकल हो गए हैं
नासिर काज़मी