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तिरे ख़याल को भी फ़ुर्सत-ए-ख़याल नहीं | शाही शायरी
tere KHayal ko bhi fursat-e-KHayal nahin

ग़ज़ल

तिरे ख़याल को भी फ़ुर्सत-ए-ख़याल नहीं

शाज़िया अकबर

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तिरे ख़याल को भी फ़ुर्सत-ए-ख़याल नहीं
जुदाई हिज्र नहीं है मिलन विसाल नहीं

मिरे वजूद में ऐसा समा गया कोई
ग़म-ए-ज़माना नहीं फ़िक्र-ए-माह-ओ-साल नहीं

उसे यक़ीन के सूरज से ही उभरना है
वो सैल-ए-वहम में बहता हुआ जमाल नहीं

दहक उठे मिरे आरिज़ महक उठीं साँसें
फिर और क्या है अगर ये तिरा ख़याल नहीं

न-जाने कितने जहाँ मुंतज़िर हैं तेरे लिए
तिरे उरूज की पहले कहीं मिसाल नहीं