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तिरे जहाँ से अलग इक जहान चाहता हूँ | शाही शायरी
tere jahan se alag ek jahan chahta hun

ग़ज़ल

तिरे जहाँ से अलग इक जहान चाहता हूँ

मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी

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तिरे जहाँ से अलग इक जहान चाहता हूँ
नई ज़मीन नया आसमान चाहता हूँ

बदन की क़ैद से बाहर तो जा नहीं सकता
इसी हिसार में रह कर उड़ान चाहता हूँ

ख़मोश रहने पे अब दम सा घुटने लगता है
मिरे ख़ुदा मैं दहन में ज़बान चाहता हूँ

कोई शजर ही सही धूप से नजात तो हो
ये तुम से किस ने कहा साएबान चाहता हूँ

ये टुकड़ा टुकड़ा ज़मीनें न कर अता मुझ को
मैं पूरे सहन का पूरा मकान चाहता हूँ

फिर एक बार मिरी अहमियत को लौटा दे
तिरी निगाह को फिर मेहरबान चाहता हूँ

मिरी तलब कोई दुश्वार-कुन नहीं 'आज़र'
इसी ज़मीन पे हिफ़्ज़-ओ-अमान चाहता हूँ