तिरे बग़ैर गुल-ओ-नस्तरन पे क्या गुज़री
न पूछ अब के बहार-ए-चमन पे क्या गुज़री
मआल-ए-जुरअत-ए-मंसूर कुछ सही लेकिन
सवाल ये है कि दार-ओ-रसन पे क्या गुज़री
हमीं तो हैं कि जो बर्क़-ओ-शरर से खेले हैं
हमीं से पूछ रहे हो चमन पे क्या गुज़री
क़फ़स में आज ये कैसे चराग़ रौशन हैं
इलाही ख़ैर न जाने चमन पे क्या गुज़री
पहुँच के मंज़िल-ए-मक़्सद पे ये भी सोचेंगे
कि शब-रवी में दिल-ए-राहज़न पे क्या गुज़री
मुझे शिकस्त-ए-नशेमन का ग़म नहीं लेकिन
ये सोचता हूँ कि अहल-ए-चमन पे क्या गुज़री
तराक़्क़ियाँ तो ज़माने ने कीं बहुत 'अरशद'
मगर बताओ तो अर्बाब-ए-फ़न पे क्या गुज़री
ग़ज़ल
तिरे बग़ैर गुल-ओ-नस्तरन पे क्या गुज़री
अरशद सिद्दीक़ी