तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया
तुझे मैं क्या समझता था मगर तू क्या निकल आया
ज़रा सा काम पड़ते ही मिज़ाज इक ख़ाक-ज़ादे का
क़द-ओ-क़ामत मैं गर्दूं से भी कुछ ऊँचा निकल आया
ज़र-ए-ख़ुश्बू खनकता रह गया दस्त-ए-गुल-ए-तर में
दिल-ए-सादा ख़रीदार-ए-दिल-ए-सादा निकल आया
अजब इक मोजज़ा इस दौर में देखा कि पहलू से
यद-ए-बैज़ा निकलता था मगर कासा निकल आया
कहानी जब भी दोहराई पस-ए-हर-आबला-पाई
वही महमिल वही मजनूँ वही सहरा निकल आया
'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन
तिरे ग़म से तो सारी उम्र का रिश्ता निकल आया
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ग़ज़ल
तिरा रंग-ए-बसीरत हू-ब-हू मुझ सा निकल आया
नजीब अहमद