तिरा बे-मुद्दआ माँगे दुआ क्या
मरज़ है तंदुरुस्ती में दवा क्या
कहें क्या क्या किया है हम ने क्या क्या
तुझे ऐ बेवफ़ा क़द्र-ए-वफ़ा क्या
तबस्सुम हो जवाब-ए-मुद्दआ' क्या
कहा क्या आप ने मैं ने सुना क्या
कहो आख़िर ज़रा मैं भी तो सुन लूँ
मिरी निस्बत सुना है तुम ने क्या क्या
तुम्हारी मेहरबानी है तो सब है
मिरा अरमान मेरा मुद्दआ' क्या
न देखें वो तो अपना गिर्या बे-सूद
न पूछें वो तो अपना मुद्दआ' क्या
चला तू भी जो ऐ दिल लेने वाले
हमारे पास फिर बाक़ी रहा क्या
अदाएँ तुम को बख़्शीं हम को आँखें
करेगा और बंदों से ख़ुदा क्या
जो मुझ को आप ही दर से उठा दें
कोई रक्खे किसी का आसरा क्या
समझते हो जो अपने-आप को तुम
उसे समझेगा कोई दूसरा क्या
खिलाते हो क़सम ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ पर
ज़रा सोचो मरज़ क्या है दवा क्या
मिरे घर को तुम अपना घर न समझो
तो ऐसी मेहमानी का मज़ा क्या
'सफ़ी' ख़ुद बीनी ठहरे जिन का शेवा
नज़र आएगा उन को दूसरा क्या

ग़ज़ल
तिरा बे-मुद्दआ माँगे दुआ क्या
सफ़ी औरंगाबादी