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तिलस्माती फ़ज़ा तख़्त-ए-सुलैमाँ पर लिए जाना | शाही शायरी
tilsmati faza taKHt-e-sulaiman par liye jaana

ग़ज़ल

तिलस्माती फ़ज़ा तख़्त-ए-सुलैमाँ पर लिए जाना

ज़ुबैर शिफ़ाई

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तिलस्माती फ़ज़ा तख़्त-ए-सुलैमाँ पर लिए जाना
मिरे घर में उतरती शाम का मंज़र लिए जाना

वो अस्बाब-ए-शिकस्त-ओ-फ़त्ह ख़ुद ही जान जाएगा
अलम जब हाथ से छूटे तो मेरा सर लिए जाना

गरज के साथ बिजली भी चमकती है पहाड़ों में
मुसाफ़िर है कि तूफ़ानी हवा को घर लिए जाना

खुले जाते हैं जैसे दिल के सारे बंद दरवाज़े
अब उन क़दमों की आहट क्या समाअ'त पर लिए जाना

वहाँ सुनते नहीं हैं देखते हैं ज़ख़्म-ए-पेशानी
अगर जाना तो आईना पस-ए-जौहर लिए जाना

गली की ख़ाक मुट्ठी में लिए हैं चाहने वाले
'ज़ुबैर' इस कीमिया को तुम भी चुटकी-भर लिए जाना