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तीरगी चाँद को इनआम-ए-वफ़ा देती है | शाही शायरी
tirgi chand ko inam-e-wafa deti hai

ग़ज़ल

तीरगी चाँद को इनआम-ए-वफ़ा देती है

शमीम हनफ़ी

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तीरगी चाँद को इनआम-ए-वफ़ा देती है
रात-भर डूबते सूरज को सदा देती है

मैं ने चाहा था कि लफ़्ज़ों में छुपा लूँ ख़ुद को
ख़ामुशी लफ़्ज़ की दीवार गिरा देती है

कोई साया तो मिला धूप के ज़िंदानी को
मेरी वहशत तिरी चाहत को दुआ देती है

कितनी सदियों के दरीचे में है बस एक वजूद
ज़िंदगी साँस को तलवार बना देती है

क़फ़स-ए-रंग में दिन रात वही प्यास का दर्द
आगही भी मुझे जीने की सज़ा देती है