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तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब | शाही शायरी
tira-baKHton ko kare hai nala-e-ghamgin KHarab

ग़ज़ल

तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब

वली उज़लत

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तीरा-बख़्तों को करे है नाला-ए-ग़मगीं ख़राब
जिस तरह हो जा सबा से काकुल-ए-मुश्कीं ख़राब

जों नसीम-ए-सुब्ह ग़ुंचे गुल के सब बरबाद दे
सर्द-मेहरी से बुतों की हैं दिल-ए-रंगीं ख़राब

बे-दिमाग़ी मत कर ऐ ज़ालिम कि जूँ मौज और हबाब
दिल मिरा कर दे है पल में अबरू-ए-पुर-चीं ख़राब

जूँ जले है शम्अ' का मुश्त-ए-ज़र और तस्बीह-ए-अश्क
जिस तरह सरकश का है दुनिया ख़राब और दीं ख़राब

था बना 'उज़लत' वो जब फ़ौलाद-दिल परवेज़ से
तब तो तेशे ने किया यूँ ख़ाना-ए-शीरीं ख़राब