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तीर-ए-क़ातिल का ये एहसाँ रह गया | शाही शायरी
tir-e-qatil ka ye ehsan rah gaya

ग़ज़ल

तीर-ए-क़ातिल का ये एहसाँ रह गया

शिबली नोमानी

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तीर-ए-क़ातिल का ये एहसाँ रह गया
जा-ए-दिल सीना में पैकाँ रह गया

की ज़रा दस्त-ए-जुनूँ ने कोतही
चाक आ कर ता-ब-दामाँ रह गया

दो क़दम चल कर तिरे वहशी के साथ
जादा-ए-राह-ए-बयाबाँ रह गया

क़त्ल हो कर भी सुबुकदोशी कहाँ
तेग़ का गर्दन पे एहसाँ रह गया

हम तो पहुँचे बज़्म-ए-जानाँ तक मगर
शिकवा-ए-बेदाद-ए-दरबाँ रह गया

क्या क़यामत है कि कू-ए-यार से
हम तो निकले और अरमाँ रह गया

दूसरों पर क्या खुले राज़-ए-दहन
जबकि ख़ुद साने से पिन्हाँ रह गया

जज़्बा-ए-दिल का ज़रा देखो असर
तीर निकला भी तो पैकाँ रह गया

जामा-ए-हस्ती भी अब तन पर नहीं
देख वहशी तेरा उर्यां रह गया

ज़ोफ़ मरने भी नहीं देता मुझे
मैं अजल से भी तो पिन्हाँ रह गया

ऐ जुनूँ तुझ से समझ लूँगा अगर
एक भी तार-ए-गरेबाँ रह गया

हुस्न चमका यार का अब आफ़्ताब
इक चराग़-ए-ज़ेर-ए-दामाँ रह गया

लोग पहुँचे मंज़िल-ए-मक़्सूद तक
मैं जरस की तरह नालाँ रह गया

याद रखना दोस्तो इस बज़्म में
आ के 'शिबली' भी ग़ज़ल-ख़्वाँ रह गया