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तीर-ए-नज़र से छिद के दिल-अफ़गार ही रहा | शाही शायरी
tir-e-nazar se chhid ke dil-afgar hi raha

ग़ज़ल

तीर-ए-नज़र से छिद के दिल-अफ़गार ही रहा

आग़ा हज्जू शरफ़

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तीर-ए-नज़र से छिद के दिल-अफ़गार ही रहा
नासूर उस में सूरत-ए-सोफ़ार ही रहा

दुनिया से है निराली अदालत हसीनों की
फ़रियाद जिस ने की वो गुनहगार ही रहा

सौदाइयों की भीड़ कोई दम न कम हुई
हर वक़्त घर में यार के बाज़ार ही रहा

नर्गिस जो उस मसीह की नज़रों से गिर गई
अच्छे न फिर हुए उसे आज़ार ही रहा

गुलज़ार में हमेशा किए हम ने चहचहे
सय्याद ओ बाग़बाँ को सदा ख़ार ही रहा

आई न देखने में भी तस्वीर यार की
आईना दरमियान में दीवार ही रहा

सुरमे से तूर के भी न कुछ फ़ाएदा हुआ
आँखों को इंतिज़ार का आज़ार ही रहा

मजनूँ ने मेरा दाग़-ए-जिगर सर पे रख लिया
ये गुल वो है जो तुर्रा-ए-दस्तार ही रहा

कुछ भी न मुफसिदों की दरअंदाज़ियाँ चलीं
इक उन्स मुझ से उन से जो था प्यार ही रहा

बोले वो मेरी क़ब्र झरोके से झाँक कर
ये शख़्स मर के भी पस-ए-दीवार ही रहा

मुमकिन न फिर हुई क़फ़स-ए-गोर से नजात
जो इस में फँस गया वो गिरफ़्तार ही रहा

आलम में हुस्न-ओ-इश्क़ का अफ़्साना रह गया
यूसुफ़ ही रह गए न ख़रीदार ही रहा

सय्याद को कभी न मुसीबत ने दी नजात
बुलबुल के सब्र में ये गिरफ़्तार ही रहा

क्या जाने उस ग़रीब को किस की नज़र हुई
उन अँखड़ियों का शेफ़्ता बीमार ही रहा

तू रह गया फ़क़त तिरे सौदाई रह गए
यूसुफ़ रहे न मिस्र का बाज़ार ही रहा

राहत किसी हसीं से भी पाई न ऐ 'शरफ़'
चाहा जिसे वो दर-पए-आज़ार ही रहा