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तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं | शाही शायरी
tiflan-e-kucha-gard ke patthar bhi kuchh nahin

ग़ज़ल

तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं

जौन एलिया

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तिफ़्लान-ए-कूचा-गर्द के पत्थर भी कुछ नहीं
सौदा भी एक वहम है और सर भी कुछ नहीं

मैं और ख़ुद को तुझ से छुपाऊँगा या'नी मैं
ले देख ले मियाँ मिरे अंदर भी कुछ नहीं

बस इक गुबार-ए-वहम है इक कूचा-गर्द का
दीवार-ए-बूद कुछ नहीं और दर भी कुछ नहीं

ये शहर-दार-ओ-मुहतसिब-ओ-मौलवी ही क्या
पीर-ए-मुग़ान-ओ-रिन्द-ओ-क़लंदर भी कुछ नहीं

शैख़-ए-हराम-लुक़्मा की पर्वा है क्यूँ तुम्हें
मस्जिद भी उस की कुछ नहीं मिम्बर भी कुछ नहीं

मक़्दूर अपना कुछ भी नहीं इस दयार में
शायद वो जब्र है कि मुक़द्दर भी कुछ नहीं

जानी मैं तेरे नाफ़-पियाले पे हूँ फ़िदा
ये और बात है तिरा पैकर भी कुछ नहीं

ये शब का रक़्स-ओ-रंग तो क्या सुन मिरी कुहन
सुब्ह-ए-शिताब-कोश को दफ़्तर भी कुछ नहीं

बस इक ग़ुबार तूर-ए-गुमाँ का है तह-ब-तह
या'नी नज़र भी कुछ नहीं मंज़र भी कुछ नहीं

है अब तो एक जाल सुकून-ए-हमेशगी
पर्वाज़ का तो ज़िक्र ही क्या पर भी कुछ नहीं

कितना डरावना है ये शहर-ए-नबूद-ओ-बूद
ऐसा डरावना कि यहाँ डर भी कुछ नहीं

पहलू में है जो मेरे कहीं और है वो शख़्स
या'नी वफ़ा-ए-अहद का बिस्तर भी कुछ नहीं

निस्बत में उन की जो है अज़िय्यत वो है मगर
शह-रग भी कोई शय नहीं और सर भी कुछ नहीं

याराँ तुम्हें जो मुझ से गिला है तो किस लिए
मुझ को तो ए'तिराज़ ख़ुदा पर भी कुछ नहीं

गुज़रेगी 'जौन' शहर में रिश्तों के किस तरह
दिल में भी कुछ नहीं है ज़बाँ पर भी कुछ नहीं