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थोड़ा है जिस क़दर मैं पढ़ूँ ख़त हबीब का | शाही शायरी
thoDa hai jis qadar main paDhun KHat habib ka

ग़ज़ल

थोड़ा है जिस क़दर मैं पढ़ूँ ख़त हबीब का

लाला माधव राम जौहर

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थोड़ा है जिस क़दर मैं पढ़ूँ ख़त हबीब का
देखा है आज आँखों से लिक्खा नसीब का

हम मय-कशों ने नश्शे में ऐसे किए सवाल
दम बंद कर दिया सर-ए-मिंबर-ख़तीब का

सय्याद घात में है कहीं बाग़बाँ कहीं
सारा चमन है दुश्मन-ए-जाँ अंदलीब का

अपनी ज़बान से मुझे जो चाहे कह लें आप
बढ़ बढ़ के बोलना नहीं अच्छा रक़ीब का

आँखें सफ़ेद हो गईं जब इंतिज़ार में
उस वक़्त नामा-बर ने दिया ख़त हबीब का

क़िस्मत डुबोने लाई है दरिया-ए-इश्क़ में
ऐ ख़िज़्र पार कीजिए बेड़ा ग़रीब का

वो बे-ख़ता हैं उन से शिकायत ही किस लिए
'जौहर' ये सब क़ुसूर है अपने नसीब का